जब पहुँचा वहाँ तब अंधेरा देखा,
मैंने कोठरियों में कुछ नहीं देखा,
तम की रेखायें ही थीं,
अलग-अलग आयामों में,
उनका इतिहास बँटा होगा,
कई-कई, कई नामों में,
क्या बात मैं करता उससे,
सन्नाटे की ही गूँज थी,
क्यों बेवजह उलझता उससे,
अंधेरे का ही राज था,
पर थका नहीं, हारा नहीं मैं खड़ा रहा,
कुछ था मुझमें जो अंधेरे से बड़ा रहा,
कोशिश थी बस सुनने की,
कि क्या सन्नाटा कहता है?
संसार से होकर दूर,
क्यों अलग यह रहता है?
बहुत कुछ सुन सका मैं,
जब धीरता को बुन सका मैं।
उन कोठरियों के अस्तित्व की मुझमें,
एक धुँधली-सी स्मृति है,
जान पाया मैं जाकर वहाँ,
अंधेरा, निर्माता की बेजोड़ कृति है !
-PAmitHindi
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