अब कैसे लिखूँ कविताएं,
मेरे हाथ टूट गए हैं।
दो ही तो थे, जो,
लेकर आते थे पकड़ कर,
दृश्यों को, लोगों को,
मनमोहने वाली बातों को,
आखिर मैं बंधा ही हूँ कुछ
नियमों से, सबकी तरह
संदेह इस पर भी है
आखिर मैं मनुष्य ही तो हूँ।
वह जो अंतिम कविता थी न,
फाड़ डाली थी उस चिंटु ने,
और बना ली थी नाव
वो बारिश बहुत बुरी रही,
उस अज्ञानी चिंटु को एक बार
पढ़नी तो चाहिए थी कविता,
औऱ मुझे कुछ थपकियाँ पीठ पर,
पर नहीं, चूँकि सब लाये थे
अपनी-अपनी नाव, इसीलिये,
सोचे-समझे बिना ले गया
मेरी कविता, जो बहुत
सम्हालकर रख दी थी दराजों में,
अपने साथियों के लिये,
लेकिन अब कैसे लिखूं कविताएं,
मेरे हाथ टूट गए हैं।
-PAMIT Hindi
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