क्या-क्या नहीं सृष्टा ने उसको दिया,
पर, हैरत ये है, उसे दिखाई क्या दिया !
कैसा है वह, पंकज को पहचानता नहीं,
हैरत ये है, खुद को पंक से भिन्न जानता नहीं।
समय की चाल तय है, वह ग्रस लेगा उसे,
अनिश्चित है कब, कहाँ, यह व्याल डस लेगा उसे !
बाजार की भीड़ में वह खुद दांव पर है,
नहीं पता उसे, वह समूचा मामूली भाव पर है।
पूछता हूँ, क्या पाया है, तो जेबें दिखाता है,
मैं होता हूँ मौन, तो बोलना मुझे सिखाता है।
अपनी हँसी का, खुशी का, सौदा किया करता है,
अमृत का नाम दे, कई घूँट विष पिया करता है।
खुद से मुलाकात नहीं करता, दूरी बनाता है,
इसी कारण से वह अपनी जिंदगी अधूरी बनाता है।
गुलदस्तों के गुल सूखने पर भी नहीं चौंकता,
है आदमी, लेकिन नौकरों पर कुत्तों जैसे भौंकता।
गहरी नींद है बहुत उसकी, चेतना कब जगेगी?
शायद तब, जब जीवन के अंत में एक ‘ओह’ निकलेगी।
-PAMIT Hindi
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