‘सखि, वे मुझसे कहकर जाते’- हिंदी कविता- ‘राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त’

सखि, वे मुझसे कहकर जाते,

गौतम बुद्ध के एकाएक घर-संसार छोड़कर, मध्यरात्रि में सत्य की खोज में निकलने के पश्चात उनकी पत्नी यशोधरा की व्यथा का वर्णन राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने अपने शब्दों में किया, उस कविता के कुछ अंश-

सखि, वे मुझसे कहकर जाते,
कह, तो क्या मुझको वे अपनी पथ-बाधा ही पाते?

मुझको बहुत उन्होंने माना
फिर भी क्या पूरा पहचाना?
मैंने मुख्य उसी को जाना
जो वे मन में लाते।
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

स्वयं सुसज्जित करके क्षण में,
प्रियतम को, प्राणों के पण में,
हमीं भेज देती हैं रण में –
क्षात्र-धर्म के नाते
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

हु‌आ न यह भी भाग्य अभागा,
किसपर विफल गर्व अब जागा?
जिसने अपनाया था, त्यागा;
रहे स्मरण ही आते!
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

नयन उन्हें हैं निष्ठुर कहते,
पर इनसे जो आँसू बहते,
सदय हृदय वे कैसे सहते ?
गये तरस ही खाते!
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

जायें, सिद्धि पावें वे सुख से,
दुखी न हों इस जन के दुख से,
उपालम्भ दूँ मैं किस मुख से ?
आज अधिक वे भाते!
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

गये, लौट भी वे आवेंगे,
कुछ अपूर्व-अनुपम लावेंगे,
रोते प्राण उन्हें पावेंगे,
पर क्या गाते-गाते ?
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

-राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त



“‘सखि, वे मुझसे कहकर जाते’- हिंदी कविता- ‘राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त’” के लिए प्रतिक्रिया 5

  1. मैं भी बहुत सालों पहले यशोधरा की इस व्यथापूर्ण कविता पढ़ी हूॅ। यशोधरा की स्थिति सच में खेदनीय है।

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