‘हिरोशिमा’-हिंदी कविता-‘अज्ञेय’

सन् 1945 में 6 अगस्त व 9 अगस्त को, जापान में, हिरोशिमा व नागासाकी, पर हुए परमाणु हमलों को बाद, किसी रेलयात्रा के दौरान रची गई हिंदी साहित्य के उत्कृष्ट रचनाकार व कवि अज्ञेय की कविता- ‘हिरोशिमा…

एक दिन सहसा
सूरज निकला
अरे क्षितिज पर नहीं,
नगर के चौक :
धूप बरसी
पर अंतरिक्ष से नहीं,
फटी मिट्टी से।

छायाएँ मानव-जन की
दिशाहिन
सब ओर पड़ीं-वह सूरज
नहीं उगा था वह पूरब में, वह
बरसा सहसा
बीचों-बीच नगर के:
काल-सूर्य के रथ के
पहियों के ज्‍यों अरे टूट कर
बिखर गए हों
दसों दिशा में।

कुछ क्षण का वह उदय-अस्‍त!
केवल एक प्रज्‍वलित क्षण की
दृष्‍य सोक लेने वाली एक दोपहरी।
फिर?
छायाएँ मानव-जन की
नहीं मिटीं लंबी हो-हो कर:
मानव ही सब भाप हो गए।
छायाएँ तो अभी लिखी हैं
झुलसे हुए पत्‍थरों पर
उजरी सड़कों की गच पर।

मानव का रचा हुया सूरज
मानव को भाप बनाकर सोख गया।
पत्‍थर पर लिखी हुई यह
जली हुई छाया
मानव की साखी है।

-‘अज्ञेय



“‘हिरोशिमा’-हिंदी कविता-‘अज्ञेय’” के लिए प्रतिक्रिया 3

  1. अपृतिम , निशब्द हूं यह कविता पढ़ कर

    Liked by 2 लोग

    1. जी हाँ, बहुत अच्छी कविता है यह, आपको धन्यवाद।

      Liked by 1 व्यक्ति

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